पर्यावरण सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा उठाया गया कानूनी कदम
औद्योगिक क्रान्ति ने प्रदूषण को जन्म दिया। बढ़ती जनसंख्या ने प्राकृतिक एवं अन्य संसाधनों का इस सीमा तक शोषण किया कि व्यक्तिगत कुछ पा लेने की होड़ में आम आदमी का जीवन दूभर हो गया। वनों के विनाश ने ऋतु चक्र को गड़बड़ा दिया, वर्षा कम होने लगी, अकाल प्रायः प्रतिवर्ष पड़ने लगे। चारे की कमी ने पशुधन को होनि पहुँचाई।
प्रकृति के असन्तुलन से पर्यावरण विकृत हो गया। जल, वायु, भूमि सभी प्रदूषित होने लगे। तेजाबी वर्षा, ग्रीन हाउस प्रभाव, ओजोन पर्त का विघटन, स्मोग दुर्घटनाएँ, विषैला वायुमण्डल सभी ने मनुष्य को हर पल अनेक बीमारियों से ग्रसित कर उसे अस्वस्थ कर दिया। उसे इन सबसे छुटकारा पाने का कोई उपाय भी नहीं दिखा और वह नितान्त असहाय महसूस करने लगा।
भारत ही नहीं पूरा विश्व ही पर्यावरण के इस बिगड़ते स्वरूप से प्रभावित हुआ। विकासशील व अविकसित देश इस समस्या से अधिक प्रभावित हुए, क्योंकि एक तो उनकी अपेक्षाकृत भारी जनसंख्या, दूसरे आर्थिक अभाव और तीसरे अशिक्षा अथवा कम शिक्षा उन्हें इस संकट से सहज छुटकारा नहीं दिला सकती थी। आम जनता ने पहले प्रशासन से और फिर कानून से संरक्षण चाहा। प्रगति के नाम पर प्रशासन स्वयं भी कहीं इस समस्या के उत्पन्न करने के कारणों से जुड़ा था।
अतः वह कुछ कर न सका। हाँ, कानून ने राहत दी है। विद्वान् न्यायाधीशों और विधिवेत्ताओं ने आम नागरिकों के लाभ के लिए जहाँ भी कानून में कुछ मिला, उसी से जनता को लाभ पहुँचाया। यहाँ तक कि भारत के संविधान की धाराओं में भी उनके हित में बहुत खोज कर उनका उपयोग किया।
पर्यावरण में कानून की आवश्यकता
पर्यावरण में कानून की आवश्यकता वस्तुतः आम नागरिक को दैनिक जीवन की अत्यन्त मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति, उनकी शुद्धता, प्रदूषण को रोकने तथा आगे न होने देने और विकृत पर्यावरण को सुधारने के लिए ही महसूस हुई। अतः पर्यावरण संरक्षण तथा प्रदूषण रोकने हेतु अनेक कानून पिछले वर्षों में बने ।
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